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भारतीय मुस्लिम खुद को “आतंकी” क्यों मानते हैं?

तीखी बात
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viswaroopam-theatr-sl-2-2-2 कहते हैं कि फिल्म तो समाज का आइना होती हैं जब देश में ऐसी घटना घटित होती है जिसका संबंध सीधे समाज से होता है तो ऐसे विषय पर फिल्में बनना और बनाना ज़रुरी हो जाता है औऱ ये भी सच है कि ऐसी फिल्में जब समाज की उन विसंगतियों या कुछ अन्य मुद्दों को उठाने की कोशिश करती हैं तो विवाद उनके पीछे लग ही जाता है कुछ ऐसी ही फिल्म हैं माई नेम इज खान और सिंह इज किंग। इन फिल्मों पर विवाद इतना उठा कि फिल्मों की रिलीज को राज्यों में बैन कर देना पड़ा.. वो भी इसलिए क्यों कि कुछ संगठन इसे अपने आप से जोड़ कर देखने और लोगों को दिखाने लगे और अभी हाल ही में कुछ ऐसा ही कमल हसन की फिल्म विश्वरुपम के साथ हो रहा है जिस पर इतना विवाद छाया हुआ है कि अपनी मूवी रिलीज न होने के चलते कमल हसन को ये तक कहना पड़ गया कि वो कोई ऐसा देश देखेंगे जो धर्मनिरपेक्ष हो, ऐसा उन्होंने इसलिए कहा कि फिल्म पर राजनीतिक रोटियां भी सिकनी शुरु हो गई लेकिन मुझे एक बात समझ नहीं आती जब इस देश में फिल्मों को मॉनीटर करने के लिए सेंसर बोर्ड स्थापित किया गया है तो क्यों उसमें राज्य सरकार आकर हस्तक्षेप करती हैं, क्यों लोग सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करतें हैं अगर लोगों को कुछ आपत्ति है तो इस लोकतांत्रिक देश में कोर्ट में जाने की भी इजाजत है ऐसी कई मूवी हैं जिनमें अल्पसंख्यकों को एक आतंकवादी दिखाया गया है जिसमें प्रमुख रुप से माइ नेम इज खान, मां तुझे सलाम, फना जैसी फिल्में हैं इन फिल्मों में आतंकवादी की छवि में सिर्फ अल्पसंख्यक ही दिखाए गए हैं तो हर मुसलमान इसे अपने ऊपर रख कर क्यों देखता है, अगर वो मुसलमान जो अपने आप को हिन्दुस्तानी मानता है भारत में रहता है उसे तो कभी अपने ऊपर एसी बातों को रखकर देखना ही नहीं चाहिए… वो तो सब धर्मों से ऊपर उठकर एक हिंदुस्तानी है.. और वैसे भी हम क्या पूरा विश्व जानता है कि ज्यादातर आतंकवाद केवल पाकिस्तान से होकर पनपता है ये तो एक संयोग है कि वो एक मुस्लिम राष्ट्र है तो ऐसी फिल्में सिर्फ उस राष्ट्र की आतंकवादी गतिविधियों को देखकर ही बनाई जाती हैं तो क्यों हर मुसलमान इसे अपने आप से जोड़ लेता है मैं तो ये भी नहीं कहता कि पाकिस्तान में हर मुस्लिम आतंकवादी है वहां भी कई मुस्लिम भाई शान्ति ही चाहते हैं लेकिन उनके मन्सूबे कैसे बदलेंगे जो सिर्फ खून खराबा करना ही सीखे हों उन्हें तो अपने कौम से कोई मतलब नहीं वे तो सिर्फ इतना जानते हैं कि आतंक कैसे फैलाया जाए। विश्वरुपम फिल्म में ऐसे दृश्य अगर हैं जो अल्पसंख्यक समाज को नागवार गुज़रते हैं तो कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जा सकता है लेकिन तब बहुत ज्यादा तकलीफ होती है कि जब खुद सरकार ये कहकर फिल्म की रिलीज रुकवाती है कि फिल्म के रिलीज हो जाने पर लॉ एण्ड ऑर्डर खराब होने की स्थिति पैदा हो जाएगी तो इसे राजनीति नहीं तो और क्या कहेंगे। मैं मानता हूं भीड़ कभी ऐसे ही उग्र नहीं होती जब तक उसे कोई नेता न मिला हो। लगता है कुछ ऐसे ही मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने अपनी कौम की रक्षा करने के बजाए उन्हें बदनाम करने का बीड़ा उठा लिया है। जिसकी वजह से आज पूरा तमिलनाडू जल रहा है साथ ही देश में भी विश्वरुपम की आग लगी हुई है सवाल सिर्फ इतना है कि आखिर एक कलाकार को भी अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करने का हक है कि नहीं और वैसे भी ये सब जानते हैं कि संयोग से जिन आतंकवादियों से पूरा विश्व थर्राया हुआ है वो मुस्लिम राष्ट्र है लेकिन हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है ।

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